मां का वात्सल्य

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               = माँ का वात्सल्य =

             एक 'माँ' हमेशा अपने बच्चों के हित का ध्यान रखती है । वह कभी भी अपने बच्चों का अहित नहीं कर सकती। 'पुत कपुत सुने हैं पर न माता सुनी कुमाता' यह पंक्ति हम माता की आरती में गाते आ रहे । ये तो बच्चे ही होते हैं जो उनकी बातों को समझ नहीं पाते और अपनी कपटी बुद्धि एवं असंतोष भाव से स्वयं का घर बर्बाद करते हैं । 
                 माँ अपने बच्चों को उन सभी अनुभवों से परिचित कराती है जो एक घर को घर बनाने के लिए आवश्यक होती है ।
              एक माँ के द्वारा दिखाया रास्ता कभी भी समस्यात्मक नहीं हो सकता, वह तो उपचारात्मक होता है । सम्पूर्ण विश्व में केवल माँ का प्रेम ही है जो निःस्वार्थ होता है । वह माँ ही है जो बिना कहे अपने बच्चों की सारी जरूरतों को समझ जाती है।
          हाँ ! यह बात अवश्य ही सत्य है कि माँ जब अपने प्रेम भाव को नियंत्रित नहीं कर पाती,वह अपनी वत्सलता के प्रभाव से प्रभावित हो कर उचित अनुचित में भेद नहीं कर पाती, तब उन्हें अपने बच्चों के अलावा कोई अन्य दिखाई नहीं देता। ऐसे में माँ की चिन्ता अपने बच्चे प्रति तो उचित होता है परन्तु कभी कभी यह एक परिवार के दृष्टिकोण से अनुचित समझा जा सकता है।

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