लघु कथा- हमारी पाठशाला

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                  "हमारी पाठशाला"

              एक व्यक्ति की नौकरी अध्यापक के रूप में वनांचल में लगी। पहली नौकरी थी, तो उत्साह और उमंग उन्माद भरे अध्यापन कार्य हेतु प्रस्फुटित हो रहा था। कक्षा में बच्चे भी नए अध्यापक के जोश और प्रेम पाकर बहुत खुश हुआ करते थे। 
              अध्यापक ने बच्चों की उपस्थिति पंजी का निरीक्षण किया, तो दिखा कि सभी बच्चे हमेशा विद्यालय आते हैं। अध्यापक ने सोचा बच्चे विद्यालय के प्रति बहुत ही सजग होंगें। अध्यापक जी ने बच्चों के ज्ञान का परीक्षण किया तो पाया कि अन्य क्रियाकलापों और व्यावहारिकता को छोड़कर, बच्चों का विद्यालयीन गतिविधियों में कोई रुचि नहीं था। 
             अध्यापक ने बच्चों से पूछा - आप सभी बच्चों की उपस्थिति विद्यालय में अधिक है, उसके बावजूद भी आपको पढ़ने लिखने में रुचि क्यों नहीं? 
सभी बच्चे शांत थे। 
तभी बच्चों के बीच में से एक छात्रा, अध्यापक जी से पूछी - सर जी! क्या सभी शिक्षक और बच्चे अवकाश के दिन भी विद्यालय नहीं आ सकते? 
अध्यापक जी ने मजाक मजाक में (हंसते हुए) कहा - "क्यों ? आप लोग छुट्टी में विद्यालय आते क्या?" 
सभी बच्चे एक साथ(खुश हो कर) बोले - जी सर जी!
अध्यापक जी आश्चर्य में पड़ गए (गंभीरता के साथ) पूछे - क्यों? घर अच्छा नहीं लगता क्या?
एक बच्ची (उदासी भरी आवाज में) बोली- "सर जी! घर पर हमारा बहुत काम रहता है।"
                 अध्यापक जी सोच में पड़ गए, और झूठी मुस्कान के साथ कक्षा से बाहर आ गए।



लेखक,
लक्ष्मीकांत वैष्णव 'मनलाभ'


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